(गुड मॉर्निंग: ‘न्यूज़प्रेमी’, रविवार , 3 अगस्त 2025)
सभी फिल्में मनोरंजन के लिए नहीं होतीं। ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘वैक्सीन वॉर’, ‘रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट’, ‘हिस स्टोरी ऑफ इतिहास’, ‘द केरल स्टोरी’ और ‘साबरमती रिपोर्ट’ जैसी कई फिल्में आपकी आंखें खोलने के लिए बनाई जाती हैं। इस शुक्रवार को रिलीज हुई ‘डॉ. हेडगेवार’ भी ऐसी ही एक फिल्म है।
इस विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की शताब्दी मनाई जाएगी। 1925 की विजयादशमी पर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में संघ की स्थापना की थी। भारत की स्वतंत्रता के लिए और सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए संघ ने पिछले 100 वर्षों में जो कार्य किया है, वह स्तर का और वैसा प्रभावी काम किसी अन्य संगठन ने नहीं किया है।
कांग्रेस के कुछ नेताओं और वामपंथियों के प्रचार के कारण संघ के बारे में बिलकुल निराधार जानकारियां और कई भ्रांतियां फैलती गईं। इस फिल्म के ज़रिए इनमें से कई गलतफहमियां दूर होंगी। जैसे – विचारों में गहरे मतभेद होने के बावजूद गांधीजी को संघ के प्रति कोई द्वेष नहीं था और डॉ. हेडगेवार को गांधीजी के प्रति आदर था – यह सच्चाई इस फिल्म में सामने लाई गई है। संघ मुसलमानों से नफरत नहीं करता बल्कि वह भारत-विरोधी तत्वों का सामना करने के लिए हिंदुओं को सक्षम बनाने का कार्य करता है – यह तथ्य भी फिल्म में स्पष्ट किया गया है।
डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना न की होती, तो पिछले 100 वर्षों में कांग्रेस और वामपंथियों ने देश को बेच दिया होता। आज हम पाकिस्तान से भी बदतर स्थिति में जी रहे होते। हेडगेवार ने गुरु गोलवलकर जैसे अपने अनेक उत्तराधिकारियों को तैयार किया। संघ के संस्कारों के कारण श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे सैकड़ों-हजारों नेता देश को मिले। उनके नेतृत्व में संघ के लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं ने देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए आजीवन काम करते हुए अपने आप को खपा दिया।
आज भी आतंकवादियों के समर्थक कुछ मुस्लिम नेता संघ से नफरत करते हैं। सोनिया-पुत्र राहुल गांधी और तमाम कांग्रेसीयों को संघ का नाम सुनते ही गाली देने की आदत है। इन सबके मुंह पर ‘डॉ. हेडगेवार’ फिल्म एक करारा तमाचा है।
कांग्रेस के शासन में ऐसी फिल्म रिलीज करना तो दूर, ऐसी फ़िल्म बनाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। कांग्रेस जो विरासत छोड़कर गई है, उसका नतीजा यह है कि जब हम शुक्रवार को विले पार्ले (पूर्व) के एक थियेटर में पैसे खर्च कर यह फिल्म देखने गए, तो थिएटर के बाहर दर्शकों की सुरक्षा के लिए एक बड़ी वैन और दर्जनों पुलिसकर्मियों को तैनात करना पड़ा। थिएटर के परिसर में और भीतर भी पुलिस की तैनाती थी। हिंदुत्व का गौरव गाने वाली फिल्म को असामाजिक तत्व नुकसान न पहुंचाएं, इसके लिए आज भी सतर्कता बरतनी पड़ती है। सोचिए, जब केंद्र और राज्य – दोनों जगह भाजपा की सरकार होते हुए भी ऐसी दहशत में फिल्म रिलीज करनी पड़े, तो कांग्रेस शासन में ये तत्व किस तरह उछलकूद करते होंगे। हमने मालेगांव मामले के फैसले में यह देख लिया है।
संघ, हिंदू धर्म, सनातन परंपरा और भारत के इतिहास के बारे में अंग्रेजों के जमाने से जो भ्रम फैलाए गए, उन्हें आजादी के बाद कांग्रेसियों ने और मजबूत किया। संघ की गतिविधियों से जुड़ने की बात तो दूर, संघ का उल्लेख करते हुए भी डर लगता था, ऐसा माहौल कांग्रेस ने बनाया था। ‘संघी’ शब्द एक गाली की तरह उपयोग में लाया जाता था। (हम तो आज गर्व से एक टीशर्ट पहनते हैं: ‘संघी होना गर्व की बात है’)
2014 के बाद माहौल बदला। पहले जो विषय फिल्ममेकर्स के लिए अस्पृश्य माने जाते थे, आज उन पर फिल्में बन रही हैं। आज ‘डॉ. हेडगेवार’ पर जो फिल्म बनी है, उसी विषय पर उससे भी कई गुना बेहतर फिल्म जरूर बनेगी, धैर्य रखिए। जैसे एटनबरो ने ‘गांधी’ पर बड़ी बजट की फिल्म बनाई थी, वैसे ही ‘गांधी’ से चार गुना प्रभावशाली फिल्में डॉ. हेडगेवार और संघ पर भी बनेंगी।
लेकिन एक बात समझ लीजिए – फिल्में सिर्फ पैसों से नहीं बनतीं। वे टैलेंटेड क्रिएटर्स और बजट – दोनों से बनती हैं। कई बार बिना बड़े बजट के भी सिर्फ प्रतिभा के बल पर शानदार फिल्में बनती हैं और इसके सैकड़ों उदाहरण भारत सहित दुनिया भर की फिल्म इंडस्ट्री में हैं।
तो क्या हमारे पास ऐसी राष्ट्रवादी फिल्मों के लिए पैसे नहीं हैं? पैसे तो हैं – करोड़ों रुपए हैं। तो फिर समस्या कहां है?
अब जब बात निकली है, तो इस पर विस्तार से चर्चा हो ही जानी चाहिए, कृपया धैर्य से पढ़िए।
आजादी के बाद नेहरू की कृपा से शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, थिएटर, सिनेमा आदि क्षेत्रों पर शिक्षा मंत्री डॉ. अबुल कलाम आज़ाद के मुस्लिम रिश्तेदारों एवं मित्रों और नेहरू के कृपापात्र साम्यवादी विचारधारा के घुसपैठियों का कब्जा हो गया। वे खुद को ‘प्रोग्रेसिव’ कहलाने लगे। अगर आप इनके साथ नहीं जुड़ते हैं, तो आपको परंपरावादी या रूढ़ीवादी माना जाता था। सरकार से इन ‘तरक़्क़ी पसंद’ सर्जकों को पुरस्कार, मान-सम्मान, आर्थिक सहायता सबकुछ मिलता था। इसके कारण नए टैलेंटेड रचनाकार, भले ही उनके भीतर हिंदू संस्कार हों, लेकिन इस वामपंथी इकोसिस्टम में घुलमिलकर अपनी पहचान बनाते। अपनी विचारधारा के साथ समझौता कर लेते। उन्हें पता होता था कि अगर उन्होंने अपने सनातन विचार उजागर किए, तो उन्हें इस सर्कल से बाहर फेंक दिया जाएगा।
जिन साहित्यकारों, पत्रकारों, फिल्मकारों या रंगकर्मियों के लिए हम सभी के मन में सम्मान होता है, उनके वामपंथी होने का बड़ा कारण यही है। लता मंगेशकर जैसी गायिका भी मोदी युग से पहले वीर सावरकर से अपने पारिवारिक संबंधों की बात खुलकर नहीं कर सकती थीं। मनोज कुमार जैसे देशभक्ति से भरी फिल्में बनाने वाले भी नेहरु के प्रशंसक थे और केवल भारत के संस्कारों की बात करते थे , हिंदुत्व या सनातन परंपरा का गुणगान मुखर होकर करने का साहस भी उनमें नहीं था।
हर किसी को अपना करियर प्यारा होता है, यह स्वाभाविक भी है। पिछले दो दशकों में हमने देखा है कि अभिजीत, सोनू निगम और महान गायक जगजीत सिंह जैसे कलाकारों ने वामपंथ के खिलाफ और सनातन के पक्ष में कुछ कहा तब उन्हें भी अपने करियर की धीमी रफ्तार वाले दिन देखने पड़े।
आज भी हिंदी पत्रकारिता या साहित्य में आने वाले प्रतिभाशाली लेखक अगर वामपंथी सेटअप में फिट नहीं बैठते, तो उन्हें कोई मान-सम्मान नहीं मिलता। हिंदी ही नहीं, बल्कि गुजराती, मराठी, तमिल, मलयालम, बंगाली आदि भाषाओं में भी साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में यही स्थिति है। मुंबई में जिसे मैं दशकों से तीर्थस्थान की तरह आदर देता हूँ उस पृथ्वी थिएटर और एनसीपीए जैसे स्थानों पर आज की तारीख में भी वामपंथी कलाकारों का दबदबा है।
ऐसी स्थिति में यदि आप हिंदूवादी या वामपंथ-विरोधी विषय पर प्रोफेशनल स्तर पर फिल्म या नाटक बनाना चाहें, तो फायनांस भले मिल जाए लेकिन प्रोफेशनल टैलेंट नहीं मिलेगा। अच्छे निर्देशक, स्क्रिप्ट राइटर, अभिनेता-अभिनेत्री, तकनीकी टीम, कोई भी ऐसे प्रोजेक्ट से जुड़ना नहीं चाहेगा। उन्हें डर होता है कि अगर यह घोषित हो गया कि वे किसी राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं, तो उनकी हालत भी अभिजीत, सोनू या जगजीतजी जैसी हो जाएगी। और वे लोग तो पहले ही नाम कमा चुके थे, इसके बावजूद उन्हें दयनीय परिस्थिति में डाल दिया गया जब कि हम लोग तो अभी भी स्ट्रगलर हैं या अभी अभी नाम कमा रहे हैं, अभी तो कुछ बने भी नहीं हैं, जो कुछ प्राप्त करने की इच्छा है, वहां तक पहुंचने में अभी काफी देर है इसीलिए अगर रास्ते में ही कुछ अनहोनी हो गई तो ज़िंदगी औंधे मुंह गिर पड़ेगी-इस प्रकार की भय ग्रंथि से वे ग्रस्त हैं।
पत्रकारिता, साहित्य, सिनेमा-नाटक, शिक्षा जैसे अन्य कई क्षेत्रों में वामपंथियों के तगड़े इकोसिस्टम से डरे बिना अपने बलबूते पर करियर बनाने वाले बहुत कम लोग हैं।
इसलिए हमें इंतजार करना होगा। अभी जो बदलाव की बयार चल रही है, वह मोदी युग की देन है। रातोंरात 60 सालों का जमा हुआ ज़हर नहीं मिटेगा। ‘साबरमती रिपोर्ट’, ‘डॉ. हेडगेवार’ और ऐसी कई फिल्में बन रही हैं, रिलीज हो रही हैं, हम तक पहुँच रही हैं इसका संतोष मानना चाहिए। ऐसी फिल्मों में फलाने की कमी है, ढिमके की कमी है, वो होता तो ठीक होता, तमुक होता तो अच्छा लगता, फलानी गलती नहीं होनी चाहिए थी, ऐसी आलोचनात्मक दृष्टि से बॉलिवुड की फिल्में भले ही देखें, किंतु ‘डॊ. हेडगेवार’ जैसी फिल्मों को अलग नज़रिए से देखा जाना चाहिए। बच्चा जब चलना सीखता है, उसे थोड़ा थोड़ा दौड़ना भी आता है तो वह उसेन बोल्ट की तरह क्यों नहीं दौड़ रहा है, ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
डॉ. हेडगेवार के जीवन पर पिछले वर्ष भी एक फिल्म आई थी। यह दूसरी फिल्म है। इस फिल्म में प्रसिद्ध अभिनेता मनोज जोशी सूत्रधार की भूमिका में हैं। जयानंद शेट्टी मुख्य भूमिका में हैं। राधास्वामी अवुला ने पटकथा और निर्देशन किया है। अनूप जलोटा, शंकर महादेवन और सुरेश वाडकर ने गीत गाए हैं।
आजकल मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों के बुरे दिन चल रहे हैं। भाड़े के एक्टर्स को थिएटर में भेजकर उनके रोते हुए दृश्य शूट कर पब्लिसिटी एजेंटों को पैसे देकर वायरल करवाई गई फिल्मों भी अब नहीं चलतीं। आमिर खान तक को अपनी फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ थियेटर में नहीं चली, तो उसे यूट्यूब पर रिलीज करनी पड़ी। ऐसे समय में ‘डॉ. हेडगेवार’ जैसी फिल्म को चुनिंदा थिएटर में रिलीज करने में दिक्कत होती है तो यह बात समझी जा सकती है। अगर पसंदीदा समय का शो न मिले, या पसंदीदा थिएटर दूर हो, तो भी देखनी चाहिए।
‘डॉ. हेडगेवार’ फिल्म देखने के बाद दर्शकों को उनके जीवन, संघ के कार्यों और संचालन के बारे में और जानने की उत्सुकता होगी। संघ के अन्य सरसंघचालकों के जीवन, विचारों और कार्यों के बारे में जानने की इच्छा बढ़ेगी। सौभाग्य से इस विषय पर दर्जनों पुस्तकें बाज़ार में उपलब्ध हैं। गुजराती के प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार और अब दिल्ली में बहुत बडी ज़िम्मेदारी निभा रहे किशोर मकवाणा द्वारा लिखी गई पुस्तकें आर.आर. शेठ जैसे अग्रणी प्रकाशक ने प्रकाशित की हैं। संघ पर पीएच.डी करने वाले और टीवी डिबेट्स में सटीक जानकारी देने में माहिर रतन शारदा जी की पुस्तकें भी अंग्रेजी और हिंदी में उपलब्ध हैं। इसके अलावा संघ के बारे में जानकारी देने वाले कई साधन मौजूद हैं। ‘डॉ. हेडगेवार’ फिल्म देखने के बाद आपके लिए संघ को जानने का एक महामार्ग खुल जाएगा।
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