उन्होंने मुझे चुनाव में हराने के लिए षड्यंत्र किया

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

१९५७ में कौवापुर से बलरामपुर होकर दिल्ली के संसद भवन तक की यात्रा की बात को एक दिन के लिए टालकर आगे बढते हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी १९५७ में पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे, लेकिन १९६२ के आम चुनाव में वे हार गए थे. इस हार के पीछे का कारण क्या था? लेफ्टिस्ट, साम्यवादियों को नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. यह बात स्वयं वाजपेयी ने कही है. साम्यवादियों और कांग्रेसियों की सांठगांठ पुरानी रही है. भारत की हिंदू परंपरा के किसी भी दृढ सेवक को नेस्तोनाबूद करने में ये लोग हमेशा लगे रहते हैं.

वाजपेयी ने लिखा है:`मुझे इस बात का हमेशा खेद रहेगा कि मैं तीसरी लोकसभा का सदस्य नहीं चुना गया. १९६२ से १९६७ का कालखंड स्वतंत्र भारत के जीवन में बडा महत्वपूर्ण था. इस बीच देश ने दो लडाइयां देखीं. दो प्रधानभंत्री हमारे बीच रहे. चीन के आक्रमण ने नेहरू को मर्मांतक पीडा पहुंचाई थी. उसके विश्वासघात ने उन्हें अंतरतम तक हिला दिया था. वे पुन: अपनी पुरानी जीवंत मुद्रा में नहीं दिखाई दिए. उन्हें देखकर लगता था कि जैसे उन्हें किसी ने उनके आभा मंडल से अलग कर दिया है. श्री लाल बहादुर शास्त्री दिल के दौरे से दिवंगत हुए थे. वे दिल के मरीज रह चुके थे. किंतु जिन परिस्थितियों में उनका निधन हुआ उनमें यह आशंका करना स्वाभाविक था कि उन पर ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला गया और उनका दिल उस दबाव को सहन नहीं कर सका.’

वाजपेयी बताते हैं कि तीसरी लोकसभा में कांग्रेस का बहुमत थोडा घट गया था. सांसदों की संख्या ३७१ से घटकर ३६१ पर आ गई थी. कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों में दो का इजाफा हुआ था और भारतीय जन संघ ने काफी बडी प्रगति की थी- उसके ४ से १४ सांसद हो गए. इसके बावजूद वाजपेयी हार गए थे. क्यों? उन्हीं के शब्दों में.

`तीसरी लोकसभा में मेरी हार सर्वथा अप्रत्याशित थी. मैने अपने चुनाव क्षेत्र की पांच साल तक अच्छी देखभाल की थी. संसद में, संसद के बाहर, मैने बलरामपुर का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व किया था. प्रतिपक्ष के सदस्य के नाते मैने सरकार को अपनी कडी आलोचना का निशाना बनाया था. भारतीय जन संघ के प्रवक्ता के रूप में पार्टी को पुष्ट किया था और पृथक पहचाने बनाने में सफलता पाई थी. पार्टी के बढते हुए प्रभाव से विरोधी परेशान थे. उन्होंने मुझे चुनाव में हराने के लि षड्यंत्र किया. सांप्रदायिकता विरोधी समिति की अध्यक्षा को हरियाणा से हटाकर मेरे विरुद्ध बलराम में लडाने का फैसला किया. उन्हें सभी वाममार्गियों का समर्थन प्राप्त था. उनका यह भी दावा था कि उन्हें नेहरूजी का आशीर्वाद प्राप्त है.’

निर्वाचन क्षेत्र में पहुंच कर तुरंत ही विरोधियों ने भारतीय जन संघ और खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया. उन लोगों के बेबुनियाद आरोपों का जनता पर असर पडा ऐसी बात नहीं थी, लेकिन कांग्रेसियों को लडने के लिए मुद्दा मिल गया. वे लोग अत्यंत आक्रामक हो गए. उनके पास साधन-सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी. जिला और स्थानीय अधिकारियों को दबाकर, दिल्ली तक पहुंच होने का डर दिखाकर चुनाव को प्रभावित करने की साम दाम दंड भेद की नीति-रीति अपनाई गई. निर्वाचन क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का प्रयास हुआ. मतदान के दिन बलरामपुर नगर में छूरा लहराने की घटना द्वारा जन संघ के मतदाताओं को डरा दिया गया. ये मतदाता सुबह से ही मतदान केंद्रों पर लाइन लगाकर खडे हो गए थे. इनमें बहुत सारी औरतें भी थीं. उन सभी को डरा धमकाकर वापस भेज देने की कोशिशें की गईं. कई क्षेत्रों में मतदान रोकना पडा, जहां पर मतदाता घर लौट गए उनमें से बडी संख्या में लोग वापस दिखाई हीं नहीं दिए. इसके बावजूद वाजपेयी लिखते हैं: “फिर भी मुझे विजय की आशा थी कारण मुझे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था.

बावजूद इसके वाजपेयी केवल दो हजार वोटों से चुनाव हार गए. इसका क्या कारण था? एक तो कांग्रेस को वाजपेयी को हराने के लिए बलरामपुर में नेहरू की सभा करनी पडी, लेकिन दूसरा कारण इतना स्पष्ट नहीं था. कांग्रेस की चाल थी. इसका विवरण सोमवार को दूंगा.

वाजपेयी, आडवाणी या उनके उत्तराधिकारी समान मोदी-अमित शाह ने कांग्रेस तथा वामपंथियों के षड्यंत्रों का पहले से ही सामना करना पडा है. हिंदुत्व के दुश्मन हिंदुस्तान में पहले से ही रहे हैं. वाजपेयी जब से राजनीति में आए तभी से ये तत्व उन्हें हटाने के लिए जी जान से कोशिशें कर रहे थे, लेकिन वे इन झंझावातों के सामने अटल रहे जिसका फल आज हम चख रहे हैं, अन्यथा इस देश को वे लोग कब का हडप चुके होते.

आज का विचार

छोटे मन से
कोई बडा नहीं होता,
टूटे मन से
कोई खडा नहीं होता.

अटल बिहारी वाजपेयी

( मुंबई समाचार : शनिवार, १८ अगस्त २०१८)

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