गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, शुक्रवार – १ फरवरी २०१९)
राहुल गांधी ने हाल ही में मनोहर पर्रीकर के साथ जो किया वह कोई नई बात नहीं है. राजनीति में बदमाशों की ऐसी प्रवृ्त्ति काफी पुरानी है जिसका उदाहरण आप ऑलरेडी पूर्व पी.एम. के सलाहकार संचय बारू की किताब पर बनी बेहतरीन फिल्म `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ (टीएपीएम) में देख चुके हैं.
मनमोहन सिंह जब प्रधान मंत्री थे तब के. चंद्रशेखर राव नामक आंध्र प्रदेश के राजनेता उनसे मिले थे. (चंद्रशेखर अभी तेलंगाना के सीएम हैं, उस समय तेलंगाना और आंध्रप्रदेश अलग नहीं हुए थे). मनमोहन सिंह के साथ मीटिंग के बाद चंद्रशेखर राव ने मीडिया से असत्य कहा कि मेरी पीएम के साथ तेलंगाना के बारे में भी चर्चा हुई थी, ताकि तेलंगानावासियों में उनका भाव बढे. पीएम के एड्वाइजर संजय बारू उस समय मीटिंग में मौजूद थे. किसी ने उनसे फोन करके पूछा कि तेलंगाना के बारे में क्या चर्चा हुई तब उन्होंने तय किया कि चंद्रशेखर राव का झूठ अधिक न फैलने पाए इसीलिए पीएमओ की ओर से स्पष्टीकरण जारी किया जाय कि इस विषय पर कोई चर्चा हुई ही नहीं थी. स्पष्टीकरण देने के बाद चंद्रशेखर नाराज हो गए. कांग्रेस के साथी दल के नेता के रूप में उन्होंने सोनिया गांधी से शिकायत की. सोनिया के कहने से उनकी चरणरज को माथे पर चढानेवाले वफादार सैनिक अहमद पटेल ने संजय बारू से प्रत्यक्ष भेंट करके उन्हें डांटा और कहा कि आपके स्पष्टीकरण से चंद्रशेखर को बुरा लगा है, राजनीति में ऐसी बातें तो होती ही रहती हैं, फिर वे तो हमारे मित्र दल के नेता भी हैं इसीलिए आप अपना स्पष्टीकरण वापस ले लीजिए ताकि साबित हो कि चंद्रशेखर सच्चे हैं. संजय बारू ने दृढतापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया.
दस वर्ष से भी अधिक समय बीत चुका है उस बात को और मानो कि इतिहास खुद को फिर से दोहरा रहा हो, राहुल गांधी ने चंद्रशेखर राव जैसी ही धूर्तता मनोहर पर्रीकर से मिलकर की. मनोहर पर्रीकर जैसे एफिशिएंट और प्रमाणिक राजनेता मिलना दुर्लभ है. गोवा के सीएम के रूप में और बाद में मोदी सरकार के रक्षा मंत्री के रूप में पर्रीकर ने उज्ज्वल छवि कायम रखी. अभी वे घातक बीमारी से जूझने के बावजूद यथाशक्ति देश की सेवा कर रहे हैं. राहुल गांधी बार-बार कहते रहते हैं कि राफेल डील के निजी दस्तावेज मनोहर पर्रीकर के पास हैं. राहुल की इस बात को कोई मान नहीं रहा था. वैसे भी राहुल को उनकी पार्टी सहित देशभर में शायद ही कोई गंभीरता से लेता है. राहुल ने नई चाल चली. बीमार मनोहर पर्रीकर का हालचाल पूछने के बहाने राहुल ने उनके साथ मुलाकात की और बाहर आने पर मीडिया से कहा कि मेरी मनोहर पर्रीकर के साथ राफेल डील के बारे में चर्चा हुई! ब्लफमास्टर राहुल का यह झूठ मनोहर पर्रीकर ने एक सार्वजनिक बयान जारी करके उजागर किया और देश को बताया कि हमारे बीच ऐसी कोई चर्चा नहीं हुई.
राहुल ने अब अपना आखिरी वस्त्र भी निकाल दिया और कहा कि पर्रीकर दबाव में आकर ऐसा स्पष्टीकरण देकर मुझे गलत साबित करने की कोशिश कर रहे हैं.
आप भूल जाइए कि आप कांग्रेस को वोट देनेवाले हैं या बीजेपी को. स्वतंत्र रूप से विचार कीजिए कि क्या मनोहर पर्रीकर जैसा व्यक्ति राहुल के साथ राफेल पर चर्चा करने बैठेगा भी? क्या मनोहर पर्रीकर सार्वजनिक रूप से झूठ बोलेंगे कि मैने राफेल के बारे में राहुल गांधी के साथ कोई चर्चा नहीं की? आप राहुल का भूतकाल भी जॉंचिए और तय कीजिए कि इन दोनों में से आप किसकी बातों पर, किसके चरित्र पर और किसकी नीयत पर विश्वास करेंगे.
`द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फिल्म में ली गई (और बुक में होगी भी लेकिन नहीं ली गई) अन्य कई जानकारियॉं हैं जिनके बारे में थोडी बात करेंगे. `ठाकरे’ फिल्म की बात पूरी करते हैं.
मुंबई में किसी जमाने में लाल झंडेवाले कम्युनिस्टों की ट्रेड यूनियनों का बोलबाला था. मिलों में, ऑफिसों में, होटल्स में, और दुकानों में तथा हर बाजार में इन लाल बंदरों ने पांव पसार लिए थे. अखबारों में भी उनकी ही ट्रेड युनियनें थीं. अखबार के संपादकीय कार्यालयों में तो लालसलाम वाले पत्रकार का चोला पहनकर ही घुस गए थे, प्रिंटिंग मशीने चलाने वाले कामगारों को भी डरा धमकाकर उनकी ट्रेड यूनियन बनाकर अखबार के मालिकों का हाथ मरोडना शुरू कर दिया था. बालासाहब ठाकरे की दूरदर्शिता से इन सभी जगहों पर शिवसेना की ट्रेड यूनियनें स्थापित हुईं. कोई पूछ सकता है कि इसमें लाभ क्या मिला. इस तरफ कुऑं तो दूसरी तरफ खाई जैसी परिस्थिति में भला चुनाव क्या करना? मैं तो कहूंगा कि दोनों परिस्थितियॉं भले ही खराब हों तो भी और शिवसेना की यूनियन वाली परिस्थिति अधिक खराब हो तब भी कम्युनिस्टों का बल घटना जरूरी ही था. क्योंकि जैसा कि सर्वविदित है, उस समय के रूस और चीन के इशारे पर नाचनेवाले साम्यवादी कभी इस भारत देश का भला नहीं चाहते थे. वे हमेशा भारत के खिलाफ, भारत की जनता के खिलाफ षड्यंत्र करते रहे हैं. साम्यवादियों का उद्देश्य भारत में अराजकता फैलाने और भारत को अस्तव्यस्त करना रहा है. बालासाहब की शिवसेना के बारे में आप चाहे जो कहें, भारत का हित तो है, वे राष्ट्रवादी हैं, राष्ट्रप्रेमी हैं. साम्यवादियों की गुंडागर्दी और इन लोगों की गुंडागर्दी के बीच यदि चयन करना हो तो मैं एक नहीं, बल्कि एक लाख बार राष्ट्रप्रेमियों की गुंडागर्दी को ही पसंद करूंगा. खुद को लिबरल, प्रोग्रेसिव और इंटेलेक्चुअल कहलानेवाले साम्यवादी हाथ में हंसुआ-हथौडे के चिन्हवाला लाल झंडा लेकर प्रदर्शन करें या अखबारों में घुस कर संपादक को धमकाकर, मैनेजमेंट को डराकर कॉलम लिखने का काम करें- वास्तव में तो वे गुंडे ही थे, गुंडे ही हैं और गुंडे ही रहेंगे.
बालासाहब ने मुंबई की मिलों तथा शहर के अनेक क्षेत्रों को इन लाल बंदरों की गुंडागर्दी से मुक्त करवाने का बहुत बडा काम किया जिसका हिसाब आपको `ठाकरे’ फिल्म में मिलता है.
`ठाकरे’ फिल्म का एक सीन देखते देखते आपको `मुंबई समाचार’ का स्मरण हो जाएगा. `मार्मिक’ साप्ताहिक शुरू करने के लिए बालासाहब के पास पर्याप्त धन नहीं था. दस हजार रूपए की जरूरत थी लेकिन प्रोविडेंट फंड इत्यादि बचतों के साथ आंकडा पांच हजार पर आकर अटक जाता था (ये बात फिल्म में नहीं है लेकिन साहब के यूट्यूब पर आयोजित इंटरव्यू में उन्होंने कही है. जिसके बाद की बात फिल्म में है). बैंक से लोन मिलने की स्थिति भी नहीं थी. कहा जाता है कि `तो भी नव्हेच’, `लग्नाची बेडी’ और `मोरूची माउशी’ जैसे सुपरहिट नाटकों के लेखक तथा सुविख्यात पत्रकार-संपादक आचार्य अत्रे, जिन्होंने दैनिक `मराठा’ और साप्ताहिक `नवयुग’ जैसे प्रकाशन भी शुरू किए थे. उन्होंने बैंक से १४ लाख रूपए की बडी राशि कर्ज के रूप में ली थी. आचार्य अत्रे भी शिवसेना नाम से ही राजनीतिक-सामाजिक संगठन शुरू करना चाहते थे, ऐसा कहा जाता है. `मार्मिक’ का पहला अंक १९६७ में महाराष्ट्र के पहले मुख्य मंत्री यशवंतराव चव्हाण के हाथों लोकार्पित हुआ. उसी दिन संयोग से आचार्य अत्रे का भी जन्मदिन था और बाल ठाकरे ने पहले अंक में आचार्य अत्रे को प्रेम से याद भी किया था. बालासाहब के पिता, केशव ठाकरे (`प्रबोधनकार’) `मार्मिक’ के कार्यकारी संपादक थे. उन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में भी भाग लिया था जिसके कारण यशवंतराव के साथ उनके अच्छे संबंध थे और इसीलिए यशवंतराव प्रबोधनकार के पुत्र के साप्ताहिक का उद्घाटन करने आए थे.
आचार्य अत्रे और बाल ठाकरे के बीच की दूरियां क्रमश: बढती गईं और यहां तक बढीं कि बाल ठाकरे की कांग्रेस से बढती निकटता पर आचार्य अत्रे ने अपने पेपर में लिखा था कि `शिवसेना अब वसंतसेना बन गई है.’ वसंतसेना के यहां दो अर्थ हैं. विख्यात संस्कृत नाटक `मृच्छकटिकम’ (जिस पर रेखाजी के लीड रोल में `उत्सव’ फिल्म बनी थी) की नायिका वसंतसेना है जो गणिका है. इसके अलावा दूसरा अर्थ है महाराष्ट्र में कांग्रेस के मुख्य मंत्री वसंतराव नाइक (जो १९६३ से लगातार १२ साल तक सत्ता में थे) के साथ बालासाहब की अच्छी मित्रता थी (दोनों पाइप स्मोकर भी थे). वसंतराव नाइक के निकट आ चुकी शिवसेना अब वसंतसेना बन गई, ये दूसरा अर्थ था. आचार्य अत्रे का सेंस ऑफ ह्यूमर बालासाहब की तरह ही पावरफुल था.
`मार्मिक’ के लिए और कहीं से भी धन की व्यवस्था नहीं हो पाई इसीलिए बाल ठाकरे और उनके भाई श्रीकांत ठाकरे मुंबई के एक बहुत बडे तथा बहुत ही जानेमाने न्यूजपेपर-मैगजीन के वितरक, जो प्रबोधनकार ठाकरे के मित्र भी थे, के पास जाते हैं. उनका उपनाम दांगट था.
शेष कल.
आज का विचार
मोदी के राज में बेकारी बढ गई है, ये बात सच है. पहले प्रधान मंत्री पद के लिए दो-तीन उम्मीदवार ही हुआ करते थे. अब पीएम की नौकरी के लिए बाईस-बाईस लोग होड में हैं.
– वॉट्सएप पर पढा हुआ
एक मिनट!
कल एक भाई साहब बका से पैसे लेने आए.
बात बात में अंग्रेजी त्यौहार और व्यवहार की कमियां निकालने लगे. अंग्रेजी के सख्त विरोधी थे.
बका ने विरोध करते हुए कहा कि कुछ मामलों में अंग्रेजी के बिना, अंग्रेजी रस्मों के बिना काम नहीं चलता.
लेकिन वे अपनी बात से टस से मस न हुए.
तब बका ने उन्हें चेक दिया जिसमें आज की तारीख लिखी:
पौष वद एकादशी, संवद दो हजार पैंतीस.
अब वो भाईसाहब ये चेक स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं, बोलिए अब भला बका क्या करे!