गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, गुरूवार, १३ दिसंबर २०१८)
चलिए अब हम शुरू करते हैं? पिछले ३६ घंटों में मोदी और भाजपा विरोधियों ने तथा कॉंग्रेस और राहुल प्रेमियों ने सरकार की, अमित शाह की, पीएम की और भाजपा की नीतियों की तथा उनकी कथनी की, उन सभी के जीवनशैली की जीभर कर आलोचना की है, कितनों ने तो बाकायदा गालीगलौज भी की है.
इसके विपरीत मोदी प्रेमी, भाजपा प्रेमियों ने सीखों, सलाहों की बौछार कर दी. किसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, किन बातों से दूर रहना चाहिए, किन बातों पर ध्यान देना होगा जैसी अनेक बिन मांगी सलाहें टोकरी भर भर कर लोगों ने मोदी और अमित शाह को भेजी हैं.
चलो, ठीक किया. अलोचना करनेवाले और सलाह देनेवाले राजनीतिक विश्लेषकों में हिंदी सहित हर भाषा के राजनीतिक महापंडित ते जिनमें से कई तो कल तक टोंटी चूसकर बोतल से दूध पिया करते थे.
आलोचना करनेवाले और सीख देनेवाले इन दोनों की मोदी तथा अमित शाह को जरूरत नहीं है. वे समझते हैं कि पार्टी किस तरह से चलाई जानी चाहिए, शासन कैसे करना चाहिए, किस नीति से राज करना चाहिए, किसे साथ रखना चाहिए, किससे दूर रहना चाहिए, विफलता के कारण क्या होते हैं और सफलता किस तरह पाई जाती है. वे सबकुछ समझते हैं और जहां समझ में नहीं आता है वहां सलाह लेने के लिए सर्वोच्च विशेषज्ञों की फौज उन्होंने खडी की है, जो अपेक्षित है वह करने के लिए एक पूरी हायरार्की के साथ लाखों नेताओं-कार्यकर्ताओं की फौज भी उनके पास है.
उन्हें टीका-गालीगलौज सहने की आदत पड चुकी है. आप जितना अधिक पथ्थर उन पर उछालेंगे उनका कद उतना ही अधिक होता जाएगा. बिलकुल २००२ से हम यह देखते आए हैं.
मोदी को न तो हमारे आश्वासन की जरूरत है, न हमारे प्रोत्साहन की. जरूरत है हम लोगों को ये १० मुद्दे समझने की.
१.‘मोदी खत्तम’ नहीं हुए हैं, भाजपा का सूपडा साफ नहीं हुआ है, हिंदी हार्टलैंड या हिंदी बेल्ट में भाजपा का ‘सफाया’ नहीं हुआ है. जरा इन आंकडों को देखिए: भारत के हिंदीभाषी इलाकों में (अर्थात हिंदी हार्टलैंड में) पारंपरिक रूप से १० राज्य आते हैं: बिहार, छत्तीसगढ, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड.
इन दसों राज्यों में हिंदी भाषा का और हिंदी की मौसी-बुआ जैसी बोलियों-भाषाओं का प्रभुत्व है: अवधी, मैथिली, भोजपुरी, मारवाडी, बुंदेली, हरियाणवी, छत्तीसगढी, खडी बोली या देहलवी और अफकोर्स उर्दू.
इन दस राज्यों की कुल जनसंख्या कितनी है, कुल मतदाता कितने हैं और इन दस राज्यों की विधान सभाओं में कुल सीटों में से भाजपा की सीटें कितनी हैं तथा साथ ही दसों राज्यों में हुए अंतिम विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिले वोट्स कितने हैं इसका धैर्य के साथ यदि विश्लेषण करेंगे तो समझ में आएगा कि हिंदी बेल्ट में भाजपा सफाया-वफाया नहीं हुआ है. हिंदी बेल्ट के दस राज्यों का इस दृष्टि से मोटे तौर पर विश्लेषण करने के बाद हम बाकी के नौ मुद्दे शीघ्रता से समझ सकेंगे.
इन दस में से पांच राज्यों में भाजपा की सरकार है: उत्तराखंड, झारखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और भारत का सबसे बडा राज्य उत्तर प्रदेश जिसकी विधान सभा में करीब ४०० सीटें हैं जिसमें से सवा तीन सौ पर भाजपा ने जीत हासिल की है. इन पांच के अलावा बिहार में भाजपा की गठबंधन सरकार चल रही है. सातवें राज्य दिल्ली में एक जमाने में भाजपा ने ७० में से ३२ सीटों पर राज किया था. अभी उसकी केवल ३ सीटें हैं लेकिन तकरीबन तीसरे भाग के मतदाता अब भी भाजपा के साथ हैं. ०.८ (पॉइंट आठ, एक प्रतिशत से कम) स्विंग के कारण भाजपा ने २९ सीटें गंवा दीं. ये पौना प्रतिशत मतदाता केजरीवाल के पांच वर्ष पूर्ण करने के बाद अपने पाले में लाने के लिए भाजपा बेशक काम करेगी.
हिंदी हार्टलैंड के शेष तीनों राज्य भाजपा ने गंवाए तो हैं लेकिन किस तरह से गंवाए हैं? पहले मध्यप्रदेश की बात करते हैं. भाजपा को मध्य प्रदेश में कुल मिलाकर कांग्रेस अधिक वोट मिले हैं. फिर भी कांग्रेस से कम सीटें मिली हैं (जो कि एक स्वाभाविक बात है) इसीलिए भाजपा के हाथ से सत्ता चली गई. भाजपा को ४१ प्रतिशत वोट मिले. कांग्रेस को ४०.०९ प्रतिशत. भाजपा के १,५६,४२,९८० वोटों के सामने कांग्रेस को १,५५,९५,१५३ वोट मिले, लेकिन भाजपा को १०९ सीटें मिलीं और कांग्रेस को ११४ पर जीत हासिल हुई. भाजपा को यहां पर अधिक नुकसान ‘नोटा’ के बटन ने किया. (कुछ समय पहले ही हमने ‘नोटा: न खेलूंगा न खेलने दूंगा खेल बिगाडूंगा’ के शीर्षक वाले लेख में देखा था कि वामपंथी विभाजनकारियों ने किस तरह से चुनाव व्यवस्था में ‘नोटा’ के अडंगा लगाया है). मध्य प्रदेश में ‘नोटा’ के अंतर्गत मिले वोट १.४ प्रतिशत यानी ५,४८,२९५ थे.
मध्य प्रदेश में पंद्रह साल तक सरकार चलाने के बाद भी भाजपा को मतदाताओं ने छोडा नहीं है. कांग्रेस ने किसी तरह से मध्यप्रदेश हासिल किया है.
राजस्थान मेंकांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का अंतर १ प्रतिशत से भी कम रहा. कांग्रेस को ३९.३ प्रतिशत अर्थात १,३९,३५,२०१ वोट मिले, जब कि भाजपा को आधा प्रतिशत कम यानी ३८.८ प्रतिशत अर्थात १,३७,५७,५०२ वोट मिले. यहां भी ‘नोटा’ ने गुल खिलाया. वामपंथियों के उकसावे पर १.३ प्रतिशत (४,६७,७८१) ‘नोटा’ में गए. ‘नोटा’ के परिणामस्वरूप मतदाताओं को जो उम्मीदवार चुनना ही नहीं चाहिए उसे यानी सबसे खराब उम्मीदवार को चुनने में मदद मिली है.
छत्तीसगढ में भी पंद्रह वर्ष तक भाजपा ने राज किया. एंटी इनकंबेंसी फैक्टर का बोलबाला होने के बावजूद ३३ प्रतिशत मतदाताओं, यानी मतदाताओं का तीसरा भाग इन चुनावों में भाजपा के साथ था.
२. तेलंगाना में भाजपा तीसरे स्थान पर रही. ७ प्रतिशत वोट मिले. एक ही सीट मिली. भाजपा का इस प्रदेश में पदार्पण हुआ, श्रीगणेश हुआ. यहां पर भाजपा के आधे नहीं बल्कि आधे से भी कम (२.७ प्रतिशत) वोट पानेवाले आतंकवादियों की भाषा बोलनेवाले ओवैसी की पार्टी को ७ सीटें मिलीं. ७ पूर्वोत्तर के राज्य अब पूरी तरह से कांग्रेस मुक्त हो गए हैं. मिजोरम में भी भाजपा को १ सीट मिली है और ७ प्रतिशत वोट के साथ उसने खाता खोला.
सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील इन ७ राज्यों में आजादी के बाद कांग्रेस ने राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को खूब उकसाया और अपनी स्वार्थ सिद्धि की. २०१४ के बाद सरकार ने इस क्षेत्र में विकास के जबरदस्त काम किए. जिसके बारे में एक पूरी पुस्तक लिखनी चाहिए.
३. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में राज्यों का नेतृत्व बदलने का कोई समय मोदी या अमित शाह के पास नहीं था. वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराजसिंह चौहान तथा रमण सिंह के आग्रह को दरकिनार करके यदि भाजपा ने नए, कर्मठ और प्रामाणिक तथा स्वच्छ उम्मीदवारों को टिकट दिए होते तो परिणाम अलग ही होता. लेकिन ऐसा करने पर इन तीनों वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी का सामना करना पडता और ये तीनों नेता अपने अपने समर्थकों के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ बगावत कर बैठते तो भाजपा को खूब नुकसान होता. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में सीएम के रूप में अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव के समय किसी भी पुराने चेहरे को टिकट न देने के फॉर्मूले से असंभव से लगने वाले चुनाव में मेजोरिटी हासिल की थी. मोदी-शाह बार-बार ऐसा कह चुके हं. लेकिन इन तीनों राज्यों में करने जाते तो अभी जो हुआ है उससे भी अधिक नुकसान होता. मोदी-अमित शाह के नहीं बल्कि एक संगठन के रूप में भाजपा के होश ठिकाने पर लाने के लिए आज जो परिणाम आए हैं, उन्हें अच्छा ही कहा जा सकता है. भाजपा के केंद्र और राज्य स्तर के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को बहुत ही महत्वपूर्ण सीख मिली है. वे भविष्य में काम पर लग जाएंगे.
४. मोदी ने सत्ता पर आने के बाद एक भी ऐसा फैसला नहीं लिया है कि जिसके कारण देश का हित खतरे में पड जाए. निर्वाचन क्षेत्र में कुछ हजार वोटों की घट बढ के कारण यह मान मूर्खता ही कहा जा सकता है कि मतदाताओं का मोदी से विश्वास उठ गया है. ऐसे बेवकूफों को पढने, सुनने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए.
५. क्या इन परिणामों के बाद राहुल पास हुआ? कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. जम्हाई लेते समय बताशे की तरह मुंह में आकर गिरे तीन राज्यों की सत्ता पाकर क्या करना है, जिसे इस बात का आभास नहीं है (परिणाम के दिन रात ८.३० बजे राहुल द्वारा संबोधित प्रेस कॉन्फरेंस देख लीजिएगा) उसे देश का नेतृत्व कैसे सौंपा जा सकता है? राजनीतिक विश्लेषक जितना मानते हैं उससे कहीं अधिक चतुर हैं इस देश के मतदाता.
६. राम मंदिर का मुद्दा भाजपा नहीं उठा रही है- टीवी डिबेय्स में भाजपा विरोधीयों द्वारा उठाया जा रहा है. राम मंदिर भाजपा का कोर इशू है, वह नहीं बना तो मतदाता नाराज हो जाएंगे ऐसा मोदी द्वेषी कह रहे हैं, मुसलमानों के लिए आरक्षण की हिमायत करनेवाले कहते हैं. मोदी सरकार की आथिर्र्क – सामाजिक नीतियों के कारण ग्रासरूट लेवल से लेकर मिडल क्लास, अपर क्लास तक सभी को लाभ हो रहा है, उसके आधार पर ही भाजपा को वोट मिल रहे हैं . मिलते रहेंगे.
७. क्या ये परिणाम २०१९ का ट्रेलर हैं? नहीं भई नहीं. छह महीने से भी कम समय में हमें पता चल जाएगा कि मोदी अधिक मजबूत बनकर सेकंड टर्म प्राप्त करेंगे.
८. युवकों की बेरोजगारी, किसानों की समस्या और करप्शन. इन तीनों का मंजीरा बजाने से सत्ता नहीं मिलेगी. पहले पापा ने बिजली, सडक, पानी के मंजीरे बजाए थे और नानी मां ने ‘गरीबी हटाओ’ के मंजीरे बजाए थे. मंजीरे बजाने से या भजन गाकर सत्ता नहीं चलाई जा सकती. ठोस काम करना पडता है जिसके लिए समझदारी चाहिए, इच्छाशक्ति चाहिए, १८ घंटे काम करने की स्फूर्ति होनी चाहिए.
राहुल जब कहते हैं कि ‘मोदी करप्ट’ है तब आपको उसके साथ क्या करने का मन होता है. मुझे भी होता है. जिस व्यक्ति की छवि में कभी कोई लांछन नहीं लगा सकता उसके साथ वैचारिक मतभेद हो, पॉलिटिकल रायवलरी हो सकती है लेकिन उसके कारण इस हद तक गिर जाना चाहिए? मां और बाप को बीच में लाना चाहिए? ऐसा तो कांग्रेसी नेता और उन नेताओं को पालनेवाले राहुल ही कर सकते हैं.
९. पीढियों से कांग्रेस को एकमुश्त वोट देनेवाले मुसलमान, गांधीवादी, तथा हार्डकोर कांग्रेसी कार्यकर्ता २०१९ में मोदी का साथ देंगे. २०१९ के परिणामों में भाजपा के पक्ष में स्विंग आने से यह बात साबित हो जाएगी.
१०. क्या वर्तमान विधानसभा के चुनावों के निराशाजनक परिणाम मोदी युग के अंत का संकेत दे रहे हैं? भाजपा के जो करोडों समर्थक अभी आक्रोश दबाकर बैठे हैं वे सभी अब २०१९ के चुनावों के समय धुआंधार मतदान करने के लिए बाहर निकलेंगे और तब ध्यान में आएगा कि मोदी का असली स्वर्ण युग तो अब शुरू हो रहा है.
आज का विचार
ईवीएम मशीनों को आज ईमानदारी का प्रमाणपत्र मिला. बेचारी पांच साल से नाहक ही बदनामी मोल लेती रहीं.
-वॉट्सएप पर पढा हुआ
एक मिनट!
बका: पका, कुछ सुना तुमने?
पका: क्या?
बका: राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में आल से सोना बनाने की मशीनें लग गई हैं!
Modi modi modi
Nota mean, they rejecting all candidates,how any one think that’s they are there voter, NOTA votes against each candidate,
Nice article