और अब दो महान फिल्में: `मणिकर्णिका’ और `ठाकरे’

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार – २९ जनवरी २०१९)

भारत की जयजयकार में भी जिन्हें प्रपोगेंडा लगता है ऐसे लोग `उडी:द सर्जिकल स्ट्राइक’ और `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ जैसी फिल्मों की आलोचना करते रहते हैं. इस शुक्रवार को रिलीज हुई अन्य दो महान फिल्मों का भी अब उसमें समावेश हो गया है:

`मणिकर्णिका’ और `ठाकरे’.

सिनेमा ने दुनिया का काफी भला किया है, हिंदी सिनेमा ने भी. भले के साथ बहुत कुछ बुरा भी किया है. हॉलिवुड की वॉर फिल्मों ने हिटलर को नर राक्षस के रूप में बढाचढा कर चित्रित किया है. हिटलर ने यहूदियों का क्यों विरोध किया, यहूदियों ने किस तरह से परजीवियों की तरह चूस-चूस कर जर्मनी की आर्थिक दशा को खराब कर दिया था इस बारे में हॉलिवुड में फिल्में नहीं बनतीं. कोई बात नहीं.

हिंदी सिनेमा में पादरी या मौलवी नहीं बल्कि पुजारी ही बलात्कारी दिखाया जाता है. महर्षि नारद एक दमदार पौराणिक पात्र हैं, आदरणीय पात्र हैं. लेकिन हिंदी फिल्मों ने विलन जीवन के मुँह से धूर्ततापूर्ण तरीके से `नारायण, नारायण’ का उच्चारण करवाते हुए बचपन से ही भारतीयों के दिमाग में बिठा दिया है कि नारद मुनि यानी कोई चुगलखोर व्यक्ति. इस तरह से हिंदी फिल्मवाले किसी इसाई या इस्लामिक धार्मिक पात्र को हल्के तरीके से दिखाने का साहस तो करें. फाड डालेंगे, थिएटर की सीटें. लेकिन सहिष्णुता के नाम पर हमें दबाकर रखा गया. भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह सिनेमा पर भी भारत और भारतीय संस्कृति का सर्वनाश चाहनेवाले साम्यवादियों की कडी पकड रही है. वे खुद को `प्रोग्रेसिव’ और `लिबरल’ कहलाकर तथा सेकुलरवाद का झंडा फडका कर दशकों तक हमें गुमराह करते रहे हैं. बीच में कोई इक्का दुक्का फिल्म ऐसी आ जाती है जिसमें भारतीय संस्कृति और परंपरा का जयजयकार हो रहा हो तो उसकी भर्त्सना की जाती है, बॉक्स आफिस पर फ्लॉप करने के लिए तमाम चालबाजियां की जाती हैं.

लेकिन २०१४ के बाद से इन साम्यवादी लोमडियों की शामत आई है. उनकी हजारों एन.जी.ओ. पर ताले लग गए हैं, हजारों करोडों रूपए की विदेशी फंडिंग बंद हो गई है. उनकी शक्ति में क्रमश: कमी आ रही है जिसकी तडप हम रोज अखबारों में और शाम को टीवी की चर्चाओं में देख रहे हैं.

हिंदी सिनेमा भी अब साम्यवादियों के प्रभाव से बाहर निकलकर जैसा होना चाहिए वैसा बनाने लगा है. अभी तो साल का ये पहला ही महीना है और चार सप्ताह में चार-चार फिल्में ऐसी आई हैं जिसमें भारतीयों की, भारतीय जनता की जयजकार हुई है. ये चारों फिल्में एक-दूसरे से बिलकुल अलग विषयों पर बनी हैं. `उडी’ में पाकिस्तान के साथ सैन्य संघर्ष की बात है.

`द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में सोनिया ने किस तरह से पूरे एक दशक तक असंवैधानिक तरीके से बैकसीट ड्राइविंग की, इसकी कहानी है. `मणिकर्णिका’ में १८५७ के दौरान किस तरह से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों का सामना किया, इसका इतिहास है और `ठाकरे’ में बालासाहब ठाकरे ने मुंबई की मिलों में फैल चुकी कम्युनिस्टों की ट्रेड यूनियनों की ताकत को तोडकर साम्यवादियों की शक्ति किस तरह से क्षीण की और आतंकवाद के खिलाफ हिंदुत्व की रक्षा कैसे की, इस विषय का चित्रण है.

ये चारों फिल्में तकरीबन एकसाथ आई हैं. कौन सी फिल्म देखें और किस फिल्म के बारे में लिखें? इस दुविधा का एकमात्र हल यही था कि इन सारी फिल्मों को देखकर इन सभी के बारे में लिखा जाए. फिल्म की समीक्षा के अलावा कुछ विशेष लिखा जाए. जिस प्रकार अखबार या पुस्तक में जो छपता है उसके बजाय विटवीन द लाइन्स जो पढा जाता है, उसका महत्व अधिक होता है, उसी प्रकार से ऐसी फिल्मों में दोनों आंखों से परदे पर जो कुछ भी दिखता है उससे भी अधिक महत्व की बात है हृदय में अनुभूत होने की.

चार में से दो फिल्मों के खिलाफ ऐसा अपप्रचार किया जा रहा था कि अपनी वर्षों की नॉर्मल रस्म के अनुसार फर्स्ट डे फर्स्ट शो या वीकेंड में देखने के बजाय मैने इन फिल्मों का देर से देखा और इसीलिए देर से लिख रहा हूँ. `मणिकर्णिका’ फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखी और उसी दिन बैक टू बैक `ठाकरे’ मराठी में देखी. बहुत ही अच्छा दिन बीता. एकाध दिन बाद रहा नहीं गया तो `ठाकरे’ फिर से देखी- पर इस बार हिंदी में. मन तो कर रहा है कि बाकी की तीनों फिल्में भी फिर से एक बार देखी जाएँ. अच्छी पुस्तक पढने के तरीके के बारे में अंग्रेजी में कहा जाता है कि अ बुक शुड नॉट बी रेड, इट शुड बी री-रेड. उसी प्रकार से अच्छी फिल्मों के बारे में भी कहा जा सकता है. जितनी बार देखेंगे उतनी बार नए नए आयाम आपके सामने खुलते जाते हैं.

`उडी’ और `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिसन्टर’ के बारे में और भी लिखना है. `उडी’ के बारे में प्रधान मंत्री की दृष्टि से और `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ संजय बारू की जिस फिल्म के आदार पर बनी है उसके संदर्भ में लिखना है. २०१४ में यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी, और काफी चर्चा में रही थी. तब पता नहीं क्यों पढने का मन नहीं हुआ था. एक स्नेही ने पुस्तक भेंट की तब भी यूं ही रखी रही. फिल्म देखने के बाद किंडल पर डाउनलोड करके दो ही दिन में पुस्तक पढ ली. खुब सारे नोट्स बनाए हैं जिन्हें आपके साथ साझा करना है.

`मणिकर्णिका’ और `ठाकरे’ में से कौन सी फिल्म आपको अधिक पसंद आई, ऐसा एक सीनियर पत्रकार मित्र ने वॉट्सएप पर मुझसे पूछा तो मैने जवाब लिखा: मुझे दोनों फिल्में अद्भुत लगीं.

`मणिकर्णिका’ इसीलिए कि उसमें दिखाई गई इतिहास की कई बातों से मैं बेखबर था और `ठाकरे’ इसीलिए कि उसमें प्रदर्शित हाल के इतिहास की कई सारी बातों से मैं बखूबी वाकिफ था, इतना ही नहीं कई घटनाओं का तो साक्षी भी था.

कल से, यदि ईश्वर की कृपा रही तो बिना किसी बिघ्न के इन फिल्मों के बारे में एक लघु श्रृंखला प्रति दिन आपको पढने को मिलेगी.

आज का विचार

फिल्म के निर्देशक को जब लगता है कि फिल्म फ्लॉप होनेवाली है तब वह उसमें एक आयटम सॉन्ग डाल देता है, कांग्रेस पार्टी का हाल अभी वैसा ही है.

– वॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट!

बका: मुझे काट-कसर करने की जिसे आदत हो, वैसी लडकी से शादी करनी है.

लडकी: अभी आपने जो चाय पी है उसमें डाली गई शक्कर मैने नाइस बिस्किट से निकाली थी!

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