अयोध्या के बाद के इकतीस दिन

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

( शनिवार – ८ दिसंबर २०१८)

पुरुषोत्तम लक्षमण देशपांडे मराठी सांस्कृति जगत का एक बहुत बड़ा नाम है. पु.ल. देशपांडे, लेखक, नाटककार और संगीतकार के रूप में मराठी माणूस के घर में- दिलों में बस गए थे और सन २००० में ८० वर्ष की आयु पूर्ण करने के बाद वे आज भी राज कर रहे हैं. चार जनवरी २०१९ को महेश मांजरेकर द्वारा पु,ल. के जीवन पर बनी बायोपिक रिलीज होनेवाली है. पु.ल. की पत्नी सुनीता देशपांडे हैं. सुनीता ताई ने अपने दांपत्य जीवन के कडवे-मीठे प्रसंगों का वर्णन करनेवाली आत्मकथा लिखी है `आहे मनोहर तरी’. किसी जमाने में मैने इस दंपति के बारे में एक लिखा था: `पति देशपांडे, पत्नी उपदेशपांडे’.

एक समय की बात है. रविवार का दिन था. मौज प्रकाशन ने नरिमन पॉइंट स्थित यशवंतराव चव्हाण ऑडिटोरियम के संकुल में तीसरी मंजिल पर सेमिनार हॉल में `आहे मनोहर तरी’ पुस्तक के बारे में एक संगोष्ठी का आयोजन किया था जिसमें सुनीता देशपांडे अध्यक्ष स्थान पर थीं. आमंत्रण पाने के लिए खूब होड लगी थी लेकिन समहाव आय मैनेज्ड. सुबह से लेकर लंच टाइम तक सेमिनार चला. मैने भी एक श्रोता के रूप में उसमें भाग लिया. मैं जब बोलने के लिए खडा हुआ तब पहले तीन वाक्य मराठी में बोलकर कहा कि,`मैं मुंबईकर हूँ, जन्म से ही मुंबई में पला बढा हूं, रहा हूं. मराठी बखूबी समझ सकता हूँ, पढ सकता हूँ, आनंद ले सकता हूँ लेकिन दुर्भाग्य से मैं मराठी अच्छी तरह से नहीं बोल सकता इसीलिए मैं अपनी मातृभाषा गुजराती में ही पांच इस पुस्तक के बारे में बोलूंगा.’ इतना कहकर मैं गुजराती में बोलना शुरू करता ही कि श्रोताओं ने तालियों से मेरा स्वागत किया.

सेमिनार खत्म होने के बाद लंच था जिसे स्किप करके मैं वहां से वॉकिंग डिस्टेंस पर ही स्थित एक्सप्रेस टॉवर्स की दूसरी पंजिल पर तेज कदमों से पहुंचा. साल १९९२ का था. सेलफोन नहीं हुआ करते थे. महीना दिसंबर का था. दोपहर के एक बजे गुलाबी ठंड पड रही थी. तारीख थी छह इसीलिए यह जानने की तीव्र इच्छा थी कि आज अयोध्या में जो होना था उसका क्या हुआ. दूसरी मंजिल पर गुजराती अखबार `समकालीन’ का कार्यालय था जिसके संस्थापक संपादक हसमुख गांधी ने अप्रैल १९८३ में मुझ जैसे जूनियर को अपना नंबर टू नियुक्त करके १४ जनवरी १९८४ से न भूतो, न भविष्यति के समान यह पथप्रदर्शक गुजराती दैनिक शुरू किया था. १९९२ से काफी वर्ष पहले मैं `समकालीन’ छोड चुका था लेकिन १९९१ के आस पास गांधीभाई के कहने से मैने सप्ताह में तीन कॉलम लिखना शुरू किया और एक दो साल बात दैनिक कॉलम लिखना भी आरंभ किया.

`समकालीन’ कार्यालय में सन्नाटा था. टी.वी. पर दूरदर्शन का चैनल चल रहा था. बाबरी ढांचे का पहला गुंबद तोड दिया गया था. कुछ ही घंटों में बाकी के दो गुंबदों के साथ सारा ढांचा ही ध्वस्त कर दिया गया. हर कोई स्तब्ध होकर देख रहा था. ऑफिस के फोन घनघनाने लगे. शहर में कफ्यू जैसी शांति थी, लोग घर से बाहर निकलने से झिझक रहे थे. दूर के उपनगरों में रहनेवाले `समकालीन’ के स्टाफ के कई सदस्य आज नहीं आ सकेंगे ऐसा संदेश देकर कैजुअल लीव ले चुके थे. वैसे भी रविवार के दिन दैनिक अखबार के कार्यालय में स्टाफ वीक डेज की तुलना में कम ही रहता है. पर आज तो बहुत ही कम था. ऊपर से इतने बडे समाचार. काम का भयंकर दबाव था. गांधीभाई के कहने का इंतजार किए बिना मैं बांहें चढाकर डेस्क पर बैठ गया. `लाइए, ट्रांसलेशन का काम देते जाइए’. टेलीप्रिंटर पर दनादन टेक्स्ट आते जा रहे थे. गांधीभाई खुद न्यूज एडिटर का काम करके तार की सॉर्टिंग करके हमें काम बांटते जा रहे थे. देर रात पेज बना कर निचले तल पर प्रेस में निगेटिव-पॉजिटिव पहुंचाने के बाद कुछ मिनटों में प्रेस चालू होने का शोर सुनाई दिया तो हम सभी अपनी अपनी ताजा प्रतियॉं लेकर बातों में लग गए. चर्चगेट से आखिरी ट्रेन तो कब की जा चुकी थी. अब चार बीस की पहली लोकल पकडनी थी. ट्रेन कपडकर हम सभी दादर उतरे. गांधीभाई ने हम सभी को दादर वेस्ट के प्लेटफॉर्म के बाहर फेमस चॉकलेटी चाय पिलाई. वहीं से उस दिन के अन्य कई अखबार खरीदे. फिर ट्रेन पकडकर हम सभी अपने अपने घर पहुंचे.

घर पहुंच कर नींद आ नहीं रही थी. अखबार पढकर दिमाग फट रहा था. `समकालीन’ ने जिस बाबरी को हेडिंग में जर्जर ढांचा बताया था उसे अन्य अंग्रेजी-हिंदी – मराठी अखबारों ने `बाबरी मस्जिद’ कहा था. उस समय इंटरनेट नहीं था इसीलिए मैं मद्रास से `हिंदू’, कलकत्ता से `टेलीग्राफ’, बैंगलोर से `डेक्कन हेराल्ड’ और दिल्ली से `हिंदुस्तान टाइम्स’ भी रोज मंगाता था जो सुबह में देर तक बाय एयर मुंबई में चर्चगेट के ए.एच. व्हीलर के स्टाल पर आ जाता था और दोपहर तक मुझ तक पहुंचता था. देश भर के अखबारों ने `बाबरी मस्जिद’ के नाम पर शोरगुल करके हिंदुओं को और हिंदुत्व को हंटर से धुना था. सारी रात नींद नहीं आई. मन ही मन में आक्रोश को दबाकर रात बिताई. अगले दिन, मंगलवार ८ नवंबर को मैंने `समकालीन’ में बुधवार को प्रकाशित होनेवाले अपने स्तंभ के लिए एक लेख लिखा. लिखने के बाद लगा कि अभी बहुत जल्दी है और सांप्रदायिक उभार के भय से शायद गांधी भाई नहीं छापेंगे. उस समय हर लेख मेरे साथ काम करनेवाला मेरा एक मैनेजर जैसा मेरा पियून स्वयं जाकर `समकालीन’ कार्यालय में दे आता. फैक्स आ चुके थे लेकिन मशीन महंगी थी जिन्हें लेना वाजिब नहीं था. एसटीडी की दुकान से करने जाएँ तो पर पेज का भाव इतना था कि मैं अगर टैक्सी में जाकर लौट आऊं तो भी सस्ता पडता.

यह लेख देने के लिए मैं खुद ट्रेन से `समकालीन’ के कार्यालय गया. गांधीभाई को दिया. उन्हें कहा कि मुझे क्या दे रहे हैं, डायरेक्ट टाइपसेटिंग के लिए ही दे दीजिए.

मैने कहा: आप पढ लीजिए, कहीं कल उठकर कोई `समकालीन’ की ऑफिस पर मोर्चा निकालकर तोडफोड न करे.

गांधीभाई ने हंसकर मेरे लेख का शीर्षक पढा. पहले पन्ने पर नजर डाली, पन्ना उठाकर दूसरा पन्ना देखा और फिर वे खुद जो लिख रहे थे वह पेज मेरी ओर बढा दिया और फिर घंटी बजाकर पियून को बुलाकर मेरा लेख टाइपसेटिंग के लिए भेज दिया. मैने देखा कि मैने जो स्टान्स लिया था उससे भी चार कदम आगे बढकर तेजाबी भाषा में गांधीभाई ने अपना संपादकीय शुरू किया था.

बुधवार ९ दिसंबर को `समकालीन’ के पहले पृष्ठ पर गांधीभाई का संपादकीय छपा, अंदर के एडिटोरियल पेज पर ऊपर से से मेरा लेख छपा: `किसका जनून ज्यादा खतरनाक है: सांप्रदायिकता का या दंभी धर्मनिरपेक्षता का?’

`समकालीन’ ने जो छापा उस तरह का छापने वाले भारत भर में बहुत ही कम अखबार थे. बाबरी ढांचे को मस्जिद नहीं बल्कि जर्जर ढांचा कहकर ७ दिसंबर को हेडलाइन बनाने वाले भी पहुत ही कम अखबार थे. मुझे याद है कि बाबरी टूटने के कुछ ही दिन बाद, करीब उसी सप्तह में-शायद ११ दिसंबर १९९२ को `मुंबई समाचार’ के फ्रंट पेज पर सेकुलरों के खिलाफ और हिंदू जनमानस के पक्ष में एक लंबा संपादकीय छपा था जिसे अन्य कई दैनिकों ने पुन:मुद्रित किया. गुजराती पाठकों को आश्चर्य हुआ पर खुशी भी बहुत हुई.

उस समय सेकुलर राजनीतिक पंडित मौका मिलने पर बाबरी के मुद्दे पर हिंदुओं को कोसने से नहीं चूकते थे. उनके संपादकीय में ही नहीं बल्कि पाठकों के पत्रों में भी सेकुलरवाद की बाढ आ रही थी. जब कि इस तरफ नगारखाने में शंखनाद करनेवाले कुछ इने गिने लेख-पत्रकार हिंदुत्व का परचम लेकर सेकुलरबाजों की पोल खोलने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उस आवाज को शायद ही कोई सुन रहा था.

महीना पूरा होने को आया. छह जनवरी १९९३ करीब आ रही थी. बाबरी की मासिक तिथि. उस समय मैं हिंदी – मराठी- अंग्रेजी तथा बेशक गुजराती भाषा के कुल १९ दैनिक तथा पत्रिकाएँ पढता था. कौन क्या कह रहा है, कैसे कह रहा है, किन पूर्वाग्रहों से कह रहा है, किस तरह से पाठकों को गुमराह कर रहा है यह बात पाठकों तक पहुंचाने का समय आ गया था. हर प्रकाशन का नाम देकर, हर बडी हैसियत वाले सेकुलर संपादकों को कोट करके भारत के मीडिया जगत की मॉनिटरिंग करने का समय आ गया था. गीता में भगवान श्रीकृष्ण कह गए हैं कि जब जब पृथ्वी पर सेकुलरों के पापों का भार बढ जाएगा तब तब हे वत्स, तुम मेरी ओर से मीडिया मॉनिटरिंग करना.

छह जनवरी से लगातार दस दिन तक मैने `समकालीन’ में तथा गुजरात के कई दैनिकों में सिंडिकेटेड आर्टिकल्स की सिरीज लिखी: `अयोध्या के बाद के इकतीस दिन’.

इस सिरीज में कई सेकुलरों के कपडे उतारकर उन्हें नंगा किया, उन्हीं के शब्दों को का उद्धरण देकर. सेकुलरों की फौज के साथ अकेले रण क्षेत्र में उतरने के बाद पाठक मुझे अपने कंधों पर उठाते रहे हैं और सेकुलर लहूलुहान होते रहे हैं. मेरा मानना है कि मेरे अंदर दो पक्षी बसते हैं. एक जटायु है जो जानता है कि असत्य के खिलाफ लडना है, घायल होना है, लहूलुहान होकर मौत को गले लगाना है और इसके बावजूद वह लडता है और मृत्यु का वरण करता है. क्योंकि उसे ज्ञात है कि यही उसका स्वधर्म है. क्योंकि वह जानता है कि उसे सद्गति प्राप्त होनेवाली है. क्योंकि उसे पता है कि खुद भगवान के हाथों उसका अंतिम संस्कार होना है.

दूसरी ओर ग्रीक दंतकथाओं में वर्णित फिनिक्स नाम से ज्ञात पक्षी है. जो जलकर खाक हो जाने के बाद अपनी ही राख से फिर खडा हो जाता है, पुनर्जीवित हो जाता है. ग्रीक में ये भले दंतकथा होगी पर मेरे लिए आत्मकथा है.

आज का विचार

घर थे अनेक और झरोखे थे अनेक,
फिर भी आसरे का अभाव था
एकाध कदम की दूरी भी तय नहीं हो सकी,
एकध कदम की राह में भी राहें निकलीं अनेक

– अनिल चावडा

एक मिनट!

बका की कक्षा में पढनेवाली एक लडकी के साथ बका की शादी हुई. सगाई के बाद अगले दिन बकी को फिल्म दिखाने थिएटर में ले गए बका ने पूछा: `मुझमें तुमने ऐसा क्या देखा जो फिदा हो गई?’

बकी ने पॉपकॉर्न के टब में मुट्ठी भरते हुए शरमा कर कहा:`जब हम एनसीसी के कैंप में गए था तब मैने आपको कपडे धोते, बर्तन मांजते और झाडू लगाते हुए देखा था…’

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