गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, बुधवार – ३० जनवरी २०१९)
बालासाहब ठाकरे खुले मन के थे, स्पष्ट वक्ता थे. जो कहते सार्वजनिक रूप से कहते थे, शब्दों को छिपाए बिना कहते थे कि महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री मनोहर जोशी हैं, लेकिन उनकी सत्ता का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में है. मीडिया उनकी आलोचना करता था. रिमोट कंट्रोल के कार्टून बनते. `ठाकरे’ फिल्म में १९८५ में मनोहर जोशी के मुख्य मंत्री पद की शपथ लेने से पहले बाल ठाकरे के हाथ में रिमोट कंट्रोल दिखाया गया है. `ठाकरे’ फिल्म की ये पारदर्शिता है.
लेकिन ऐसी पारदर्शिता अन्य राजैतिक दलों में नहीं होती. कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों की लगाम इंदिरा गांधी के हाथों रहा करती थी. हाई कमान के नाम पर इंदिरा से लेकर सोनिया तक सभी ने अपने मुख्य मंत्रियों को अपनी उंगलियों के इशारे पर नचाया है. पश्चिम बंगाल में जब साम्यवादियों का शासन था तब या केरल में अभी साम्यवादियों का शासन है तब- उनके चीफ मिनिस्टर्स को पोलित ब्यूरो से पूछकर पानी पीना पडता है और जब इजाजत मिले तभी और उतना ही पेशाब करना होता है. क्या ये तानाशाही या डिक्टेटरशिप नहीं है? क्या यही लोकतंत्र है? और वे लोग बालासाहब को कहते थे कि आप तानाशाह हैं, डिक्टेटर हो, आपका लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है.
`ठाकरे’ फिल्म में बालासाहब के इन गुणों के एक से अधिक संदर्भ हैं. शिवसेना के शुरुआती दिनों में एक नेता पार्टी में लोकतंत्र होना चाहिए, इस मांग के साथ बालासाहब के खिलाफ एक सभा का आयोजन करता है, तब बालासाहब के इशारे पर उसका क्या हाल होता है, यह फिल्म में किसी भी शरम के बिना दर्शाया गया है.
फिल्म में नहीं लेकिन बालासाहब द्वारा स्वयं रेखांकित कैरिकेचर याद आ रहा है. डेकोरेटिव फ्रेम में बाल ठाकरे दिख रहे हैं. फ्रेम के पीछे से एक बाहर निकलता है. हाथ में तूलिका है जिससे बाल ठाकरे के चेहरे पर हिटलर जैसी मूंछें बनाई जा रही हैं. बाल ठाकरे मुस्कुरा रह हैं. यह व्यंग्य चित्र खुद बालासाहब ठाकरे ने बनाया है और शायद `फटकारे’ नामक उनके कार्टूनों के संग्रह में देखा है जो अब दुर्लभ हो चुका है. अभी वह पुस्तक मेरी लाइब्रेरी में कहीं यहां वहां रख दी गई है अन्यथा लेख के साथ वह कार्टून पुन:मुद्रित करता.

बाल ठाकरे ने मुंबई में रहनेवाले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ नारा दिया: `उठाओ लुंगी, बजाओ पुंगी’. फिल्म के मराठी वर्जन में यह नारा है, लेकिन हिंदी में सेंसर ने निकलवा दिया है. वह बालासाहब के राजनैतिक उदय का दौर था. बेलगाम महाराष्ट्र में होना चाहिए, दक्षिण भारतीय और गुजराती सहित परप्रांतीय लोग मराठियों पर अन्याय कर रहे हैं इत्यादि मामले खडे करके ठाकरे ठाकरे बने. स्टेपिंग स्टोन के रूप में इन मुद्दों का उपयोग करने के बाद वे हिंदुत्व के मुद्दे पर आए और मरते दम तक उस मुद्दे को थामे रहे. एक जमाने में गुजरातियों के खिलाफ आंदोलन चलानेवाले शिवसेना प्रमुख २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के जवाब में फैले दंगों के दौरान दृढता के साथ नरेंद्र मोदी के पक्ष में खडे थे.
`ठाकरे’ फिल्म देखनेवाले गुजरातियों को मोरारजी देसाई के प्रति बालासाहब का नजरिया खटकेगा. असु दे. भले खटके. हर पॉपुलर पॉलिटिशियन को कई अस्थायी मुद्दों को पायदान बनाकर ऊपर चढना होता है. बालासाहब ने मोरारजी भाई का स्टेपिंग स्टोन के रूप में उपयोग किया लेकिन बालासाहब के मन में गुजरातियों के प्रति कोई द्वेष नहीं था. १९८५ में मैंने बांद्रा के `मातोश्री’ बंगले में जाकर उनका साक्षात्कार लिया था. उस समय परप्रांतियों की खिलाफत का मुद्दा शिवसेना फिर से उठाया था. बालासाहब ने इंटरव्यू के दौरान ऑफ द रेकॉर्ड मुझसे कहा था कि मुझे तो मराठियों को उनका हक दिलाने के लिए ही आंदोलन चलाना है, लेकिन परप्रांतियों के खिलाफ बडा मुद्दा लेकर होहल्ला करने की स्ट्रैटेजी इसीलिए अपनानी पडी कि हम तोप मांगेंगे तो बंदूक मिलेगी! संपादक हरकिसन मेहता से मैने कहा था कि इन शब्दों का प्रकाशित करने की बालासाहब ने छूट दी है, लेकिन उनके नाम पर नहीं. कवर स्टोरी में इन शब्दों को एक दिग्गज मराठी नेता के नाम पर छापा गया और बाकी के निर्दोष-नॉर्मल स्टेटमेंट को बालासाहब के नाम पर.
`ठाकरे’ फिल्म देखते देखते (अभी तीसरी बार देखकर बाहर निकला हूँ. पहली बार मराठी में देखी, दूसरी बार हिंदी में और तीसरी बार परत मराठीत बघितली). १३ अगस्त १९६० को बालासाहब ने `मार्मिक’ साप्ताहिक की स्थापना की. इस वर्ष का और इस तारीख का दोनों का अलग अलग कारणों से मेरे जीवन में विशेष महत्व है. `मार्मिक’ साप्ताहिक मराठी में प्रकाशित होता है, लेकिन मैं नौ-दस वर्ष की उम्र से ही इस पत्रिका से परिचित हूँ. १९६९-७० के साल से. हमारे फ्लैट के बगल में ही सावंत दंपति रहते थे. सावंतकाक की पत्नी गुजराती थीं. उनके घर `मार्मिक’ आता था. मैं उसके कार्टून देखा करता था. धीरे धीरे उसमें छपनेवाली फिल्म समीक्षाएं पढने लगा. `रविवार की जत्रा’ नाम से बालासाहब सेंटर स्प्रेड में कार्टून छापते थे. देखने में अच्छा लगता. कुछ कुछ समझ में आता. बहुत कुछ डोक्यावरून निघून जायचा.
१९६९ के दंगे हर पुराने मुंबईकर को याद होंगे. मुझे ठीक से याद है. बालासाहब की गिरफ्तारी होने के बाद शिवसेना ने बहुत बडे पैमाने पर तोडफोड की थी. तोडफोड का केंद्र दादर-माटुंगा था. दादर की कोहिनूर मिल के शोरूम से (जहॉं कॉर्नर पर अभी सेना भवन है वहां से) हमारा घर पांच मिनट की पैदल दूरी पर था. सिटिलाइट सिनेमा के सामने. हमारी बालकनी से लेडी जमशेदजी रोड दिखाई देता था, लेकिन सावंतकाका की बालकनी से सिटीलाइट सिनेमा भी नजर आता था. थिएटर के खत्म होते ही एक गली अंदर की तरफ जाती थी जहां कैलाश पानीपुरी वाले की दुकान और आगे गुरुद्वारा था. गली में प्रवेश करने के बजाय लेडी जमशेदजी रोड पर ही रहें तो कोने में ईरानी होटल था जहां एक ज्यूक बॉक्स था और १९७० में जीतेंद्र-महमूद की फिल्म `हमजोली’ आई थी, तब दस-दस पैसे के सिक्के डालकर घंटों तक उसके गाने सुना करता था.
१९६९ के दंगों के दौरान सावंतकाक की बालकनी में खडे खडे एक दृश्य देखा था. ईरानी की आड में छिपकर पुलिसवाले खडे थे. हाथ में लंबी राइफल थी. गुरुद्वारे वाली गली से एक आदमी कमीज की बटन खुली रखकर हाथ में तलवार लहराते हुए मेन रोड पर आता है. आस पास देखता है. ईरानी के पास छिपे पुलिस उसे नहीं दिखते. वह बेधडक होकर सिटीलाइट सिनेमा कंपाउंड की दीवार फांदकर दादर-कोहिनूर मिल की दिशा में सावधानी से दौड रहा है, कि तभी कान के पास किसी ने गुब्बारा फोडा हो, ऐसी `फटाक’ की आवाज सुनाई दी और वह आदमी लंगडाते हुए गिर पडा. जिस पुलिस ने गोली चलाई थी वह अन्य साथियों के संग आकर उसे खडा करता है. बस इतना सा याद है.
हमारी इमारत के नीचे साउथ इंडियन कपडे की मिल बिन्नी का शोरूम था. दंगाइयों ने उसमें आग लगा दी थी. हम बच्चे डर गए थे. बिन्नी से लूटे गए कपडे के थान हमारी दीनानाथ वाडी में सस्ते भाव में बेचे गए थे. पिताजी अडोस-पडोस में कहते थे. चोरी का माल चाहे जितना सस्ता मिले, नहीं लेना चाहिए. दो चार दिन बाद जिन लोगों के घरों से ताके निकले उन्हें पुलिस पकड कर ले गई. उन दिनों चौबीस घंटे का कर्फ्यू था. कुछ दिन बाद कर्फ्यू में दो घंटे की छूट मिली, ताकि लोग जीवनावश्यक वस्तुएं खरीद सकें. पिताजी के साथ हम भी इस दो घंटे की छूट के दौरान दादर-शिवाजी पार्क तक चक्कर लगा आते- पिताजी के लिए चाय में डाला जानेवाला ताजा दूध तुरंत ही खत्म हो जाता इसीलिए कंडेंस्ड मिल्क का डिब्बा खरीद लाते, लेकिन पिताजी को उससे बनी चाय अच्छी नहीं लगती थी.
शिवसेना गुजरातियों के बीच बदनाम हो गई थी- लेकिन मुझे `मार्मिक’ पढना/ देखना अच्छा लगता था. बडा होने के बाद, इस क्षेत्र में आने के बाद जब भी शिवसेना ने या बालासाहब ने गुजरातियों के खिलाफ (लक्ष्मी बनाम सरस्वती वाला मुद्दा) या मोरारजीभाई के विरुद्ध (बांद्रा फ्लायओवर के नामकरण के समय) कुछ कहा तब तब मैने खुले तौर पर लिखकर, सार्वजनिक रुप से बोलकर गुजरातियों-मोरारजी काका का पक्ष लेकर उन टीकाकारों की कडी भर्त्सना की है, लेकिन जब भी हिंदुत्व का, राष्ट्रप्रेम का मुद्दा आया है तब मैं उनका कट्टर समर्थक रहा हूँ. आज की तारीख में मैं देखता हूं कि बालासाहब के प्रति मेरा मान उत्तरोत्तर बढता गया है, क्योंकि १९८७ से वे प्रत्यक्ष रूप से हिंदुत्व के सक्षम समर्थक रहे हैं. मुंबई पर हमारा पहला अधिकार है, ऐसा माननेवाले गुजरातियों को सोचना चाहिए कि १९९२ में जब बाबरी टूटी थी और फिर मुंबई में जो दंगे हुए थे तब मुंबई को बचाने के लिए कौन सडकों पर उतरा था- गुजराती? या फिर शिवसैनिक? २०१२ में बालासाहब इस दुनिया को छोडकर चल बसे, उसके बाद उनके द्वारा स्थापित शिवसेना कोई आंदोलन नहीं रही, केवल एक राजनीतिक दल बनकर रह गई है जो अन्य किसी भी राजनीतिक दल की तरह जोडतोड और मौकापरस्ती की होड में लगी हुई है, लेकिन बालासाहब की आत्मा जिसमें बसती थी वह शिवसेना कुछ अलग ही थी जिसने मुंबई से सम्यवादियों को लात मारकर भगा दिया. `ठाकरे’ फिल्म ऐसे बालासाहब को समर्पित एक सशक्त कृति है जिसके लिए प्रोड्यूसर संजय राउत, निर्देशक अभिजित पानसे और खासकर आज के दौर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नवाजद्दीन सिद्दीकी अभिनंदन के पात्र हैं.
आज का विचार
जिस रंग की बुलेट मेरे शरीर को स्पर्श करेगी वह रंग इस देश में रहेगा ही नहीं.
– `ठाकरे’ फिल्म का एक डायलॉग
एक मिनट!
बका: पका, तुझे पता है?
पका: क्या, बका?
बका: प्रियंका इस दुनिया की सबसे पहली राजनीतिक होगी जिसका मायका और जिसका ससुराल दोनों जमानत पर छूटे हैं!