विदेश से संचालित चर्चों और मदरसों को अल्पसंख्यक संस्थानों का दर्जा नहीं हो सकता

गुड मॉर्निंग

सौरभ शाह

सुब्रमण्यम स्वामी की मौजूदगी में राजीव मलहोत्रा द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार मुस्लिमों में भी जाति-उपजातियों के खूब भेदभाव हैं. अशरफ, अजलाफ और अज़लाफ जातियों के बीच रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता. पाकिस्तान में यह बहुत बडी समस्या है. बिहार में जन्मे कई मुसलमान अन्य मुसलमानों को नीची जाति का मानते हैं. भारत के अधिकांश मुस्लिमों के पूर्वज स्वदेशी ही हैं लेकिन उन्हें इसका आभास नहीं है. डीएनए टेस्ट से यह बात साबित हो सकती है. अरब के लोग हमारी तरह सिविलाइज्ड नहीं हैं, सुधरे हुए- सुसंस्कृत नहीं हैं. आपको अपनी विरासत के बारे में गर्व होना चाहिए न कि अरबों का वारिस बनने की कोशिश करनी चाहिए. धर्म और संस्कृति दो अलग बातें हैं. धर्म भले इस्लाम हो, लेकिन संस्कृति में अरबों की नकल करना जरूरी नहीं है, क्योंकि इस देश की जो संस्कृति है, जो परंपरा है वही आपकी भी संस्कृति – परंपरा है. कभी कभी संस्कृति से जुडी कई बातें धर्म में प्रवेश कर जाती हैं- ट्रिपल तलाक या बहुपत्नीत्व ऐसी ही बातें हैं. लेकिन यह धर्म का हिस्सा नहीं है, इस बात को समझना चाहिए. इसीलिए हम जिस संस्कृति के वारिस हैं उस संस्कृति की परंपरा का अनुसरण हमें करना चाहिए. यहॉं रहनेवाले मुस्लिमों को यहॉं की जनता के साथ होस्टिलिटी (आक्रामकता), दुश्मनी रखने की कोई जरूरत नहीं है. और न ही उन्हें खुद को वेस्ट एशिया के इस्लामिक देशों की जनता के साथ जोडना चाहिए, क्योंकि यहॉं के मुसलमानों की मातृभूमि भारत है, जन्मभूमि भारत है, कर्मभूमि भारत है.

इस्लाम का जन्म जहॉं हुआ, वह प्रदेश मरूस्थल है. जब कि भारत वन प्रदेश है. वो उजाड प्रदेश था तो हमारी भूमि  हरी-भरी वनस्पति – वनों से भरी धरती है, सुजलाम-सुफलाम है. विपुलता की भूमि है. हम भूखे लोग नहीं हैं. हमारे कुछ उगता नहीं है इसीलिए हम भूखे हैं, ऐसी बात नहीं है. इसीलिए रेगिस्तान में बसनेवाली जातियों के रीति-रिवाज और उनका रहनसहन अलग ही होगा. यहॉं की फलदायी भूमि में बसनेवालों को उस रेगिस्तानी जातियों की जीवनशैली का अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है.

इस बात को समझने और समझाने की जरूरत है क्योंकि हमारे बीच अलगाव पैदा करने के लिए बाहरी लोग कितने समय से काम कर रहे हैं. यहां मदरसों का होना कोई आपत्तिजनक नहीं है. लेकिन उसमें क्या शिक्षा दी जानी चाहिए यह तय करने वाले बाहरी देशों के अधिकारी नहीं होने चाहिए. वे लोग यहां के मदरसों के अनुदान देकर अपने अनुकूल पाठ्यक्रम चलाते हैं. ये गलत है. ये तो यहीं के विद्वानों का तय करना है कि हम अपनी परंपरा के अनुसार, इस देश की परंपरा के अनुसार अपने मदरसों में पढनेवाली अपनी संतानों को क्या पढाएंगे.

यही बात इसाइयों पर भी लागू होती है. भारत में बसने वाली जिस अल्पसंख्यक जनता को विदेश में बसे उनके धर्म के मुखिया कंट्रोल करते हैं उन्हें अल्पसंख्यक कहने के बजाय विश्व की शक्तिशाली जनता की भारत में बसी शाखा (ब्रांच) के रूप में देखने की जरूरत है. भारत में आईबीएम या मैकडोनाल्ड की कोई भी छोटी ऑफिस या ब्रांच हो तो आप ये नहीं कह सकते हैं कि यह कोई छोटा सा व्यावसाय है, क्योंकि भारत में जो भी है वह तो उसके विशाल अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्य का एक भाग है. वह साम्राज्य ताकतवर है, यह हिस्सा उसी का अंश है. उसी प्रकार से चर्च या मदरसों को हम अल्पसंख्यक का दर्जा दे देते हैं किंतु सच्चाई ये है कि उसकी फंडिंग विदेशों से होती है जहॉं पर वे बहुसंख्या में हैं और वही बहुसंख्यक ये तय करते हैं कि इस चर्च या मदरसे का प्रमुख कौन होगा, उसकी गतिविधियॉं कैसे चलेंगी. इस चर्च और मदरसों को माइनॉरिटी के लाभ देने की जरूरत नहीं है. ये तो बाहर बसी हुई मेजॉरिटी की ब्रांच ऑफिसें हैं. वेटिकन द्वारा भारत के हर बिशप की नियुक्ति की जाती है. जिस प्रकार किसी विदेशी कंपनी द्वारा भारत की शाखाओं में कौन मैनेजर बनेगा, यह तय होता है, उसी प्रकार से चर्च का भी कामकाज चलता है. वेटिकन यहां के चर्चों की फंडिंग को कंट्रोल करता है, आइडियोलॉजी तो कंट्रोल करता ही है. यहां के लोगों को ट्रेनिंग के लिए वहां भेजा जाता है. आप कैसे कह सकते हैं कि ये सभी फॉरेन एंटरप्राइज नहीं हैं? ये मल्टीनेशनल कंपनियों की तरह कारोबार करनेवाले लोग हैं. वेटिकन स्वयं एक स्वतंत्र राष्ट्र है, युनो का सदस्य है और एक स्वतंत्र देश जब किसी दूसरे देश में अपने लोगों की नियुक्ति करता है तो हम उसे कॉन्सुलेट कहते हैं. इस अर्थ में भारत का हर एक चर्च वेटिकन की कॉन्सुलेट माना जाना चाहिए. धर्म की छत्रछाया में चलनेवाली ऐसी संस्थाओं से हम कुछ नहीं कह सकते, उनकी धार्मिक भावनाएँ आहत होने के विचार से हम कुछ नहीं बोलते और चुप रह जाते हैं, यह गलत बात है. इस पर खुली बहस होने की जरूरत है. आवश्यकता पडे तो कोर्ट में भी जाना चाहिए और कोर्ट को तय करने देना चाहिए. इस बाबत चीन की प्रथा अच्छी है. चीन ने तय किया है कि इसाई धर्म से कोई शिकायत नहीं ह लेकिन चीन में चर्चों के कामकाज में विदेशों की दखल नहीं होनी चाहिए‍. विदेश से अपॉइंट हुए बिशप्स को चीन नहीं स्वीकारता. चीन के जिन लोगों को बाइबल पढनी होती है, ईसा मसीह की पूजा करनी होती है तो उन्हें इसकी छूट है लेकिन चर्च चलाने के लिए वेटिकन के मार्गदर्शन या आदेश की कोई जरूरत नहीं है. आप अपना कोरोबार स्थानीय जनता के साथ ही चलाइए, स्वतंत्र रहकर चलाइए.

स्वदेशी मुस्लिमों को समझना चाहिए कि गौहत्या कोई इस्लाम की परंपरा नहीं है. गौहत्या पर पाबंदी लगाने से इस्लाम के अनुयायियों के किसी धार्मिक अधिकारी का उल्लंघन नहीं होता. युनो में इस बारे में एक बार चर्चा हुई थी तब मुझे उसमें भाग लेने के लिए बुलाया गया था. वहां जाकर मुझे पता चला कि भारत के मानवाधिकारों से जुडी बातों की निगरानी करने की जिम्मेदारी युनो ने पाकिस्तान को सौंपी थी!

इस चर्चा सभा में मैने कई विदेशी विशेषज्ञों की मौजूदगी में कहा था कि गाय का इस्लाम धर्म या परंपरा के साथ कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि गाय रेगिस्तान का प्राणी नहीं है. अरबी लोग भेंड बकरियॉं, ऊंट भी खाते थे. गाय नहीं खाते थे. इस्लाम के आरंभ से अरबी लोग बीफ ईटर नहीं थे. ये तो अब गौमांस एक लक्जरी आइटम बन गया है और लोग इसे खाने लगे हैं. मैने कहा कि तो फिर अब गौमांस खाने की जिद क्यों? इस्लाम के अनुयायी उसे क्यों अपना हक माने बैठे हैं. गांधीवादी विचारक, स्वतंत्रता सेनानी और अठारहवी शताब्दी के भारत के इतिहास के संशोधक धर्मपाल जी ने अपने संशोधन में यह साबित किया है कि गौमांस का उद्योग कहीं कोने में छोटे पैमाने पर बिखरे रूप में काफी समय से चलता आया है लेकिन इसे भारत में विशाल स्वरूप अंग्रेजों ने दिया. अंग्रेजों ने गौमांस के व्यापार को व्यापक बनाया और आजादी के बाद यह व्यवसाय भारत में अधिक फलाफूला. यह कोई सउदी अरब या ऐसे किसी देश की विरासत नहीं है, यह तो भारत से अंग्रेजी शासन और अंग्रेजों के जाने के बाद के इस देश के शासन की देन है. स्वदेशी मुस्लिम इस बात को स्वीकार करते हैं और वे अपने हिंदू भाई-बहनों की भावना को ठेस नहीं लगाना चाहते. आगे की बात कल…

आज का विचार

पीडीपी टूटी तो कश्मीर में सलाउद्दीन पैदा होंगे.

– महबूबा मुफ्ती

तो अभी कौन से वहां अब्दुल कलाम पैदा हो रहे हैं?

– व्हॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

रात में बका के घर की बिजली गुल हो गई.

बकी: इस गेट का लॉक बंद नहीं हो रहा है. आप टॉर्च पकडिए मैं लॉक करे देती हूँ.

(बकी ने बडी मेहनत की पर गेट बंद नहीं हुआ).

बकी: आप ट्राय करके देखिए, मैं टॉर्च पकडती हूँ.

(गेट तुरंत बंद हो गया)

बकी: अब समझे, टॉर्च कैसे पकडी जाती है?

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